chipko andolan जिसमें पेड़ों को काटने से बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपक कर खड़े हो गए थे, विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन की शुरुवात आज से ठीक 49 साल पहले आज ही के दिन यानी 26 मार्च 1973 को हुई थी
आज 26 मार्च है ये तो सभी जानते है लेकिन शायद आज की युवा पीढ़ी ये नही जानती की आज ही के दिन एक एसे आंदोलन ने जन्म लिया था जिसकी गूंज पहाड़ों से क्षुरो होकर पूरे देश में सुनाई दी थी आज से ठीक 49 साल पहले अपने पेड़ों और जंगलों को बचाने के लिए पहाड़ मई महिलाओ ने एक आदोंलन शुरू किया था जिसको नाम दिया गया था चिपको आंदोलन(chipko andolan) जिसमें पेड़ों को काटने से बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपक कर खड़े हो गए थे, विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन की शुरुवात आज से ठीक 49 साल पहले आज ही के दिन यानी 2 6 मार्च 1973 को हुई थी ।
अपने आसपास के पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने की जागरूकता को पैदा करने के लिए शुरू किया गया ये आंदोलन एक अपने आप में एक मिसाल बन जाएगा ये शायद ही आंदोलन के योद्धाओं ने भी सोचा होगा ।
दरअसल वर्ष 1970 के दशक में उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के जंगलों के कटान कि जब तत्कालीन सरकारों ने अनुमति दी तो इसी के विरोध में चिपको आंदोलन(chipko movement) का आगाज हुआ,उन दिनों जब गढ़वाल के रामपुर फाटा और जोशीमठ क्षेत्र की नीती घाटी में हरे भरे जंगल काटे जाने लगे तो वहाँ के ग्रामीणों मे एक आक्रोश की ज्वाला जाग उठी। उन्हें लगने लगा कि अगर इसी तरह हरी भरे पेड़ कटते रहे तो उनके आसपास के जंगलों का तो अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा और जंगलों की जैव विविधता खत्म हो जाएगी।
ये बात उस समय लोग समझ गए थे जिनके पास शिक्षा से लेकर हर चीज का अभाव था जो बात हम आज भी नही समझ पारहे है। बस यहीं से चिपको आंदोलन के विरोध का खाका खिंच गया। चिपको आंदोलन पर्वतीय समाज के जल,जंगल जमीन से भावनात्मकता रिश्ते को प्रदर्शित करने का अनूठा उदाहरण तो है ही साथ ही यह सामाजिक चेतना का भी बड़ा उदाहरण पेश करता है।
आज के ही दिन 26 मार्च 1973 को गोपेश्वर(gopeshwar) स्थित सर्वोदय मंडल में एक बैठक हुई और निर्णय हुआ कि सरकार के इस जनविरोधी नियम का विरोध होना चाहिए। उस समय उत्तरप्रदेश सरकार ने साइमंड एंड कंपनी को पेड़ों को काटने का लाइसेंस जारी करने के बाद जब कंपनी के लोग जंगलों को काटने पहुचे तो लोगों ने तय किया कि वह पेड़ों बचाने के लिए उन से चिपक जाएंगे। इस आंदोलन की अगुवाई रैणी गांव से हुई और देखते ही देखते ये आंदोलन गढ़वाल से कुमायूँ मंडल होते हुए पूरे देश में फैल गया ।
पेड़ को काटने से बचाने के लिए पेड़ों से चिपककर उनको बचाने के इस आंदोलन ने धीरे-धीरे पूरे उत्तराखंड में एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया । प्रसिद्ध पर्यावरणविद(environmentalist) सुंदर लाल बहुगुणा(sundar lal bahuguna) और चंडी प्रसाद भट्ट(chandi prasad bhatt) ने पूरे पर्वतीय क्षेत्र में जनजागरण के जरिये इस आंदोलन को फैलाया जबकि गौरा देवी(gaura devi) ने ग्रामीणों के साथ मिलकर कंपनी के खिलाफ पेड़ों से चिपककर विरोध किया ।
यह उत्तराखंड की जनता के जागरूक होने का प्रमाण तो बना ही साथ ही ये आंदोलन देश के कोनो-कोनों तक फैल गया। जिसके बाद हिमांचल, कर्नाटक, विंध्यांचल और बिहार मे भी लोगों ने इस आंदोलन की तर्ज पर सरकार को ठेकेदारों के माध्यम से पेड़ों को काटने के आदेश को वापस लेने पर मजबूर कर दिया। चिपको आंदोलन ने देश भर में वो जागरूकता पैदा कि तत्कालीन इंदिरा गांधी(indira gandhi) सरकार को हिमालयी क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई पर 15 साल के लिए रोक का आदेश लाना पड़ा। और वो चिपको आंदोलन ही था जिसके दबाव में केंद्र सरकार को 1980 में वन संरक्षण अधिनियम पारित कराना पड़ा ।