उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए, ये अलफ़ाज़ जिस क़लम से निकले है आज उनकी यौमे पैदाइश यानी जन्म दिन है आज उर्दू अदब के अज़ीम शायर बशीर बद्र का जन्म दिन है ।
आज के दौर का एक अज़ीम शायर आज बीमारी से मजबूर ज़रूर हैं, मगर उनके अल्फ़ाज़, उनकी शायरी आज भी उन्हें जवान और तंदरुस्त बनाए हुए है . बशीर बद्र साहब क़रीब तीन-चार साल से कुछ भी नहीं लिख रहे पर एक शायर के तौर पर दुनिया जिन्हें आज भी पलकों पर बिठाती है.
उन्होंने लिखे शेर जैसे
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला,
मैं मोम हूं उसने मुझे छू कर नहीं देखा….
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा,
इतना मत चाहो उसे वो बे-वफ़ा हो जायेगा।
हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जायेगा।
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था,
फिर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला
मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो,
मेरी तरह तुम भी झूठे हो।
कोरोना काल में उनका ये शेर काफी याद किया गया
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिजाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो।
कभी एक दौर था कि मुहब्बत ओर एहसासों के शायर बशीर बद्र से सुख़न की महफि़लों की रौनक हुआ करती थी. मगर आज उनके अल्फ़ाज़ कहीं गुम हैं. ग़ज़ल जैसे उनकी ज़बां पर तो है मगर उन्हे ख़ामोशियां गुनगुना रही हैं. हालांकि एक वह भी दौर था जब वह मुशायरों की जान हुआ करते थे मगर अब उनकी बीमारी ने उन्हें सुख़न की महफिलों से उन्हें दूर कर दिया है.
अब उनकी यादाश्त इतनी कमजोर पड़ गई हैं कि उनकी खुद लिखी हुई ग़ज़ल भी उन्हें याद दिलाने के बाद ही याद आती है. उनकी इस बीमारी के आलम मे भी उनकी शरीके-हयात डॉ.राहत बद्र हर लम्हा उनके साथ हैं. वों कहती हैं, ‘वों जब अपनी ग़ज़ल के चाहने वालों के बीच हुआ करते थे, हम तब भी उनके साथ थे और आज जब वो अपनी लिखी ग़ज़लों के साथ तन्हा है हम अब भी उनके साथ हैं. जो भी है मगर आज फूलों से एहसास का शायर ख़ामोश है. इतना
बशीर बद्र की पैदाइश अयोध्या में हुई. लेकिन उनका बचपन कानपुर में बीता. और उन्होंने अलीगढ़ में अपनी पढ़ाई पूरी की, मेरठ से भी उनका गहरा जुड़ाव रहा है. यही वजह है कि जब 1987 के साम्प्रदायिक दंगों में जब उनका आशियाना खाक हुआ, तो उसका एहसास उनकी शायरी में भी दिखा .
इस पर उनका एक शेर बहुत मशहूर है कि ‘लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में.’ और ‘दुश्मनी जम के करो लेकिन यह गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों.’ इसके बाद वह ज़्यादा वक़्त तक मेरठ में नहीं रहे और भोपाल में बस गए
मीठे अल्फ़ाज़ के माहिर बशीर साहब को मीठा इतना पसंद है कि अक्सर नमकीन खाने में भी मीठा मिला कर खा लिया करते थे. बशीर बद्र तालीम के मामले में हमेशा आगे रहे. उन्हें सर मॉरेस विलियम और डॉ. राधाकृष्ण जैसी स्कॉलरशिप भी मिलीं थीं. एक बड़ी ख़ासियत बशीर साहब की यह रही कि वह एएमयू के गोल्ड मेडलिस्ट होने के साथ ही ऐसे शायद पहले शायर हैं जिनका कलाम ख़ुद उनके कोर्स मे था. दरअसल जब वह अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ने गए, तो एमए के कोर्स में वह पहले से पढ़ाए जा रहे थे. ऐसे में जब इम्तेहान का वक़्त आया तो उनके लिए ग़ज़ल की जगह कोई दूसरा पेपर बनाया गया था.बशीर बद्र उन शायरों में शुमार हैं जिनकी शायरी अलग से पहचानी जा सकती है. बशीर बद्र साहब को पद्मश्री समेत कई पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है.