हम सब जानते है की उत्तराखंड राज्य अपनी ख़ूबसूरती के लिए पूरे विश्व मे प्रसिद्ध है. लेकिन क्या आपको मालूम है देवभूमि की इस मिट्टी में देश प्रेम भी कूट कूट भरा हुआ है. यहां के युवाओं की पहली पसंद देश की सेवा करना होता है. उत्तराखंड के नोजवानों मे देश के लिए मर मिटने का जज्बा बचपन से ही होता है. तो आइये आज बात करते है भारतीय सेना में सेवा दे रही उत्तराखण्ड की दो प्रमुख रेजिमेंट के बारे में।
कुमांऊँ रेजीमेंट
उत्तराखण्ड की दो रेजिमेंट देश की सेना में शामिल है. जिनके नाम कुमाऊँ रेजीमेंन्ट और गढ़वाल रेजिमेंट है. कुमाऊं रेजिमेंट की पहचान भारतीय सेना की सबसे पुरानी रेजिमेंट के रूप में होती है. आज कुमाऊं रेजिमेंट की देश भर में 21 से ज्यादा बटालियन देश की सुरक्षा के लिए मुस्तैद हैं।
इस रेजिमेंट में गौरवशाली सैन्य परंपरा, पराक्रम और देश के लिए मर मिटने का ज़बरदस्त जज़्बा है. इस रेजिमेंट ने अब तक के इतिहास में सबसे ज्यादा तीन थल सेनाध्यक्ष भारत को दिए हैं. देश के लिए पहला परमवीर चक्र कुमाऊ रेजिमेंट के मेजर सोमनाथ को मिला था.

कुमांऊँ रेजीमेंट की स्थापना सन 1788 में हैदराबाद में हुई थी. तब इसकी मात्र चार बटालियनें थीं। पर आज कुमाऊ रेजिमेंट की देश भर में 21 बटालियन हैं।
सन 1903 में कुमाऊंनी लड़ाकों से भरी इस फौज का भारतीय सेना में विलय हो गया. जिसके बाद 27 अक्टूबर 1945 को इस रेजिमेंट का नाम कुमाऊं रेजिमेंट हो गया. जिसके बाद रानीखेत में कुमाऊं रेजिमेंट का सबसे बड़ा मुख्यालय स्थापित किया गया.

गढ़वाल राइफल्स
उत्तराखण्ड की दूसरी रेजिमेंट को गढ़वाल राइफल्स के नाम से जाना जाता है. जिसकी सैनिक सेवा की परंपरा सदियों पुरानी है. आपको ये जान कर हैरानी होगी कि गढ़वाल को कभी मुगल भी नहीं हरा पाए और हर बार उन्हें नुकसान उठाकर वापस लौटना पड़ा. ये भारतीय सेना की सबसे ज्यादा वीरता पुरस्कार पाने वाली रेजीमेंट भी है.

गढ़वाल राइफल्स को भारतीय सेना की सबसे सीमित इलाके से बनने वाली रेजिमेंट भी कहा जाता है. क्योंकि इसमें गढ़वाल के केवल सात जिलों से आने वाले नौजवानों की भर्ती किया जाता है. अंग्रेज़ों ने शुरुआत में गढ़वाली नौजवानों को गोरखा राइफल्स में भर्ती करना शुरू किया था. लेकिन सन 1887 में फील्ड मार्शल सर एफ एस राबर्ट्स ने गढ़वालियों की वीरता से प्रभावित होकर उनकी अलग रेजिमेंट बनाई. गठन के समय इस रेजिमेंट ने कालूढाडा को अपना मुख्यालय बनाया था. जिसे 1890 में तत्कालीन वाइसरॉय के नाम पर लैंस़़डाउन कर दिया गया था. साल 1914-15 में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान गढ़वाल रेजिमेंट ने दो विक्टोरिया क्रॉस भी जीते थे. तब ब्रिटिश हुकूमत ने इसे रॉयल के खिताब से नवाजा था.

लैंस डाउन में गढ़वाल रेजिमेंट सेंटर एक शानदार इतिहास की कई कहानियां समेटे हुए है. जिसे जानकर आप फख्र महसूस करेंगे। उम्मीद है आपकी जानकारी में बहुत कुछ इजाफा हुआ होगा.